कबीर दास जी, जिन्हें संत कबीर के नाम से भी जाना जाता है, 15वीं सदी के एक महान भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे भक्ति आंदोलन के प्रमुख स्तंभों में से एक थे और उनकी रचनाओं ने भारतीय समाज और साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला। कबीर जी के दोहे व वाणियाँ आत्मा को छू जाती हैं चाहे वो व्यक्ति किसी भी धर्म या जाती से हो। कबीर साहेब जी के दोहे व वाणियाँ स्कूली बच्चों से लेकर बुजर्गों को भी बहुत हीं पसंद है। कबीर जी के दोहे जीवन का आधार है उन्होंने अपने दोहे के माध्यम से रूढ़िवादी सोच , जाती – धर्म के दिवांरो को तोड़कर भाईचारा स्थापित करने का काम करती है व व्यक्ति को भगवान के प्रति आस्था दृढ करती है। इस पोस्ट में हमने कबीर जी के कुछ महत्वपूर्ण दोहे आपके लिए लिखे हैं। कबीर जी के दोहे को समझने और उनके विचारों को अपने जीवन में अपनाने से हमें एक बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा मिलती है।
स्व तन सम प्रिय और न आना। सो भी संग नहीं चलत निदाना।।
भावार्थ:- अपने शरीर के समान अन्य कुछ वस्तु प्रिय नहीं है, वह शरीर भी आपके साथ नहीं जाएगा। फिर अन्य कौन-सी वस्तु को तू अपना मानकर फूले और भगवान भूले फिर रहे हो। सर्व संपत्ति तथा परिजन एक स्वपन जैसा साथ है। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि मेरी अपनी राय यह है कि पूर्ण संत से सत्य नाम (सत्य साधना का मंत्रा) लेकर अपने जीव का कल्याण कराओ और जब तक आप स्वपन (संसार) में हैं, तब तक स्वपन देखते हुए पूर्ण संत की शरण में जाकर सच्चा नाम प्राप्त करके अपना मोक्ष कराओ।
कबीर, बेद मेरा भेद है, मैं ना बेदन के मांहि। जौण बेद से मैं मिलूं, बेद जानते नाहीं।।
भावार्थ:- परमेश्वर ने बताया है कि चारों वेद मेरी महिमा का गुणगान करते हैं। मेरी जानकारी बताते हैं, परंतु इन वेदों में मुझे पाने की विधि नहीं। मुझे पाने की विधि सूक्ष्मवेद में है। उसके विषय में चारों वेदों में वर्णन नहीं है। इसलिए मेरी प्राप्ति चारों वेदों में वर्णित विधि से नहीं हो सकती। मेरी प्राप्ति सूक्ष्मवेद (तत्त्वज्ञान) से सम्भव है। उस तत्त्वज्ञान को जानने के लिए तत्त्वदर्शी संत के पास जाने को वेदों तथा गीता में स्पष्ट आदेश है।
कबीर, जीवै इतने माता रोवै, बहन रोवै दस मासा(महीने)। तेरह दिन तेरी त्रिया रोवै, फेर करै घरवासा।।
भावार्थ:- कबीर जी ने कहा है कि पुत्रा की मृत्यु का दुख माता को आजीवन बना रहता है। माता होने के नाते देवी जी को आजीवन सर्व संतान की मृत्यु का कष्ट बना रहता है। तीनों प्रभुओं की पत्नियाँ भी अपने पतियों के साथ जन्मती-मरती रहती हैं। देवी दुर्गा पुनः नई सावित्री, लक्ष्मी तथा पार्वती युवा वचन से उत्पन्न कर देती है। उनसे विवाह करवाती रहती है। पहले वाली आत्माऐं चैरासी लाख प्राणियों के जन्म-मरण के चक्र में चली जाती हैं।
जो मम संत सत उपदेश द.ढ़ावै (बतावै), वाके संग सभि राड़ बढ़ावै। या सब संत महंतन की करणी, धर्मदास मैं तो से वर्णी।।
भावार्थ:- कबीर साहेब अपने प्रिय शिष्य धर्मदास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरा संत सत भक्ति मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचान होगी।
तिनका कबहू न निन्दीये, जो पांव तले हो। कबहु उठ आखिन पड़े, पीर घनेरी हो।।
भावार्थ:- निन्दा तो किसी की भी नहीं करनी है और न ही सुननी है। चाहे वह आम व्यक्ति ही क्यों न हो।
कबीर, मानुष जन्म पाय कर, नहीं रटैं हरि नाम। जैसे कुंमानवआ जल बिना, बनवाया क्या काम।।
भावार्थ:- जीवन में यदि भक्ति नहीं करता तो वह जीवन ऐसा है जैसे सुंदर कुंआ बना रखा है। यदि उसमें जल नहीं है या जल है तो खारा (पीने योग्य नहीं) है, उसका भी नाम भले ही कुंआ है, परंतु गुण कुंए (WELL) वाले नहीं हैं। इसी प्रकार मनुष्य भक्ति नहीं करता तो उसको भी मानव कहते हैं, परंतु मनुष्य वाले गुण नहीं हैं।
कबीर, मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले न बारं-बार। तरवर से पत्ता टूट गिरे, बहुर ना लागे डार।।
भावार्थ:- कबीर परमात्मा जी ने समझाया है कि हे मानव शरीरधारी प्राणी! यह मानव जन्म (स्त्राी/पुरूष) बहुत कठिनता से युगों पर्यन्त प्राप्त होता है। यह बार-बार नहीं मिलता। इस शरीर के रहते-रहते शुभ कर्म तथा परमात्मा की भक्ति कर, अन्यथा यह शरीर समाप्त हो गया तो आप पुनः इसी स्थिति यानि मानव शरीर को प्राप्त नहीं कर पाओगे। जैसे वृक्ष से पत्ता टूटने के पश्चात् उसी डाल पर पुनः नहीं लगता।
कबीर, सुख के माथे पत्थर पड़ो, नाम हृदय से जावै। बलिहारी वा दुख के, जो पल-पल नाम रटावै।।
भावार्थ:- एक धनी व राज पद प्राप्त व्यक्ति को परमात्मा की कथा सुनाने की कोशिश करके देखें। उसकी बिल्कुल रूचि नहीं बनेगी। दूसरी ओर पाप कर्मों की मार झेल रहे व्यक्ति को परमात्मा चर्चा सुनायें। उसे बताऐं कि परमात्मा सर्व कष्ट दूर कर देता है। आप परमात्मा की भक्ति किया करो। देखो, अपने गाँव का अमूक व्यक्ति उस संत से दीक्षा लेकर सुखी हो गया। वह भी आपकी तरह कष्ट में था। तो वह दुःखी व्यक्ति भक्ति पर लग जाता है। उसके लिए वह दुःख वरदान बन गया। जो सुखी है, उसको कैसे समझाऐं, उसके पास तो पुण्यों की मलाई पर्याप्त है। वह धनी व्यक्ति अपने पुण्यों को खा-खर्च कर खाली होकर तथा पापों की मालगाड़ी भरकर मृत्यु उपरांत परमात्मा के दरबार में मुँह लटकाकर भयभीत होकर जाएगा, कुत्ते-गधे, सूअर के जन्म पाएगा। इसके विपरीत दुःखी-निर्धन व्यक्ति परमात्मा की भक्ति करके दान-धर्म करके वर्तमान जीवन में भी सुखी हो जाएगा। पाप कर्मों से बचकर पुण्यों की मालगाड़ी भरकर भक्ति धन का धनी होकर परमात्मा के दरबार में निर्भय होकर जाएगा। परमात्मा सीने से लगाएगा। उस भक्त को मोक्ष देकर सदा सुखी कर देगा। यदि धनी-राज्य पद प्राप्त सुखी व्यक्ति भी भक्ति पर लग जाए तो उसका तो कार्य बना-बनाया है, मोक्ष में कोई अड़चन नहीं है।
कबीर, नौ मन सूत उलझिया, ऋषि रहे झख मार। सतगुरू ऐसा सुलझा दे, उलझे न दूजी बार।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि अध्यात्म ज्ञान रूपी नौ मन सूत उलझा हुआ है। एक कि.ग्रा. उलझे हुए सूत को सीधा करने में एक दिन से भी अधिक जुलाहों का लग जाता था। यदि सुलझाते समय धागा टूट जाता तो कपड़े में गाँठ लग जाती। गाँठ-गठीले कपड़े को कोई मोल नहीं लेता था। इसलिए परमेश्वर कबीर जुलाहे ने जुलाहों का सटीक उदाहरण बताकर समझाया है कि अधिक उलझे हुए सूत को कोई नहीं सुलझाता था। अध्यात्म ज्ञान उसी नौ मन उलझे हुए सूत के समान है जिसको सतगुरू अर्थात् तत्वदर्शी संत ऐसा सुलझा देगा जो पुनः नहीं उलझेगा। बिना सुलझे अध्यात्म ज्ञान के आधार से अर्थात् लोकवेद के अनुसार साधना करके स्वर्ग-नरक, चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के जीवन, पृथ्वी पर किसी टुकड़े का राज्य, स्वर्ग का राज्य प्राप्त किया, पुनः फिर जन्म-मरण के चक्र में गिरकर कष्ट पर कष्ट उठाया। परंतु काल ब्रह्म की वेदों में वर्णित विधि अनुसार साधना करने से वह परम शांति तथा सनातन परम धाम प्राप्त नहीं हुआ जो गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है और न ही परमेश्वर का वह परम पद प्राप्त हुआ जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है। काल ब्रह्म की साधना से निम्न लाभ होता रहता है।
कबीर, यह माया अटपटी, सब घट आन अड़ी। किस-किस को समझाऊँ, या कूएै भांग पड़ी।।
भावार्थ:- अध्यात्म ज्ञान रूपी औषधि सेवन करने से जीव का नशा उतर जाता है। फिर वह भक्ति के सफर पर चलता है क्योंकि उसे परमात्मा के पास पहुँचना है जो उसका अपना पिता है तथा वह सतलोक जीव का अपना घर है। यात्रा पर चलने वाला व्यक्ति सारे सामान को उठाकर नहीं चल सकता। केवल आवश्यक सामान लेकर यात्रा पर चलता है। इसी प्रकार भक्ति के सफर में अपने को हल्का होकर चलना होगा। तभी मंजिल को प्राप्त कर सकेंगे। भक्ति रूपी राह पर चलने के लिए अपने को मानसिक शांति का होना अनिवार्य है। मानसिक परेशानी का कारण है अपनी परंपराऐं तथा नशा, मान-बड़ाई, लोग-दिखावा, यह भार व्यर्थ के लिए खड़े हैं जैसे बड़ी कोठी-बडी़ मंहगी कार, श्रृंगार करना, मंहगे आभूषण (स्वर्ण के आभूषण), संग्रह करना, विवाह में दहेज लेना-देना, बैंड-बाजे, डीजे बजाना, घुड़चढ़ी के समय पूरे परिवार का बेशर्मों की तरह नाचना, मृत्यु भोज करना, बच्चे के जन्म पर खुशी मनाना, खुशी के अवसर पर पटाखे जलाना, फिजुलखर्ची करना आदि-आदि जीवन के भक्ति सफर में बाधक होने के कारण त्यागने पड़ेंगे।
मौत बिसारी मूर्खा, अचरज किया कौन। तन मिट्टी में मिल जाएगा, ज्यों आटे में लौन।।
भावार्थ:- हे मूर्ख मानव! तूने कैसा आश्चर्य कर रखा है कि मृत्यु को भूला है। तेरा शरीर एक दिन मृत्यु को प्राप्त होकर मिट्टी में मिल जाएगा। तेरा नाम-निशान यानि चिन्ह भी दिखाई नहीं देगा। जैसे आटे में नमक मिलने पर दिखाई नहीं देता। भावार्थ है कि मृत्यु का दिन भूलकर ही मनुष्य (स्त्राी-पुरूष) स्वार्थवश गलतियाँ करता है और संसार में बेफिक्र रहता है। यदि मृत्यु याद है तो मानव कभी पाप व गफलत नहीं कर सकता।
कथा करो करतार की, सुनो कथा करतार। काम कथा सुनों नहीं, कह कबीर विचार।।
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने समझाया है कि या तो परमात्मा की महिमा का गुणगान (कथा) करो या कहीं परमात्मा की चर्चा (कथा) हो रही हो तो वह सुनो। काम यानि अश्लील चर्चा कभी न सुनना। कबीर जी ने यह विचार यानि मत बताया है।
कबीर, जिव्हा तो वोहे भली, जो रटै हरिनाम। ना तो काट के फैंक दियो, मुख में भलो ना चाम।।
भावार्थ:- जैसे जीभ शरीर का बहुत महत्वपूर्ण अंग है। यदि परमात्मा का गुणगान तथा नाम-जाप के लिए प्रयोग नहीं किया जाता है तो व्यर्थ है क्योंकि इस जुबान से कोई किसी को कुवचन बोलकर पाप करता है। बलवान व्यक्ति निर्बल को गलत बात कह देता है जिससे उसकी आत्मा रोती है। बद्दुवा देती है। बोलकर सुना नहीं सकता क्योंकि मार भी पड़ सकती है। यह पाप हुआ। फिर किसी की निंदा करके, किसी की झूठी गवाही देकर, किसी को व्यापार में झूठ बोलकर ठगकर अनेकों प्रकार के पाप मानव अपनी जीभ से करता है। परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि यदि जीभ का सदुपयोग नहीं करता है यानि शुभ वचन-शीतल वाणी, परमात्मा का गुणगान यानि चर्चा करना, धार्मिक सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन तथा भगवान के नाम पर जाप-स्मरण जीभ से नहीं कर रहा है तो इसे काटकर फैंक दो। कोरे पाप इकट्ठे कर रहा है। (जीभ को काटने को कहना तो मात्रा उदाहरण है जो सतर्क करने को है। कहीं जीभ काटकर मत फैंक देना। अपने शुभ कर्म, शुभ वचन शुरू करना। यदि रामनाम व गुणगान नहीं कर रहा है तो पवित्रा मुख में इस जीभ के चाम को रखना अच्छा नहीं है।)
अवगुण मेरे बाप जी, बक्शो गरीब नवाज। जो मैं पूत-कपूत हूँ, तो भी पिता को लाज।।
भावार्थ:- परमात्मा सर्व प्राणियों का पिता है। पिता में विशेषता होती है कि उसका बेटा-बेटी अज्ञानता में गलती कर देते हैं और वे पिता से क्षमा-याचना कर लेते हैं कि भविष्य में कभी गलती नहीं करेंगे तो पिता उनको तुरंत क्षमा कर देता है। इसलिए भक्त परमात्मा से विनय करता है कि हे दीन दयाल! आप तो सबके पिता हो। मेरे अवगुण (अपराध) पिता होने के नाते क्षमा करना। मैं कपूत यानि निकम्मा पुत्रा भी हूँ तो भी आप पिता का कर्तव्य पालन करके क्षमा करना।
दया-धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान। कह कबीर दयावान के पास रहे भगवान।
भावार्थ:- धर्म वही करता है जिसके हृदय में दया है। दया धर्म की जड़ है तथा पाप वह करता है जिसमें अभिमान भरा है। अभिमान पाप की जड़ है। कबीर परमात्मा ने कहा है कि दयावान के साथ परमात्मा रहता है। अभिमानी के पास नहीं रहता।
कबीर, सुख के माथे पत्थर पड़ो, जो नाम हृदय से जाय। बलिहारी वा दुःख के, जो पल-पल राम रटाय।।
भावार्थ:- हे परमात्मा! इतना सुख भी ना देना जिससे तेरी भूल पड़े। जिस दुःख से परमात्मा की पल-पल याद बनी रहे, वैसे दुःख सदा देते रहना। मैं बलिहारी जाऊँ उस दुःख को जिसके कारण परमात्मा की शरण मिली।
कबीर, हरि के नाम बिना, नारि कुतिया होय। गली-गली भौकत फिरै, टूक ना डालै कोय।।
भावार्थ:- मनुष्य जीवन प्राप्त प्राणी यदि भक्ति नहीं करता है तो वह मृत्यु के उपरान्त पशु-पक्षियों आदि-आदि की योनियाँ प्राप्त करता है, परमात्मा के नाम जाप बिना स्त्राी अगले जन्म में कुतिया का जीवन प्राप्त करती है। फिर निःवस्त्रा होकर नंगे शरीर गलियों में भटकती रहती है, भूख से बेहाल होती है, उसको कोई रोटी का टुकड़ा भी नहीं डालता। जिस समय वह आत्मा स्त्री रूप में किसी राजा, राणा तथा उच्च अधिकारी की बीवी (पत्नी) थी। वे उसके पूर्व जन्मों के पुण्यों का फल था जो कभी किसी जन्म में भक्ति-धर्म आदि किया था।
कबीर, हरि के नाम बिन, राजा रषभ होय। मिट्टी लदे कुम्हार के, घास न नीरै कोए।।
भावार्थ:- भगवान की भक्ति न करने से राजा गधे का शरीर प्राप्त करता है। कुम्हार के घर पर मिट्टी ढ़ोता है, घास स्वयं जंगल में खाकर आता है।
नर से फिर पशुवा कीजै, गधा-बैल बनाई। छप्पन भोग कहाँ मन बोरे, कुरड़ी चरने जाई।।
भावार्थ:- जो मनुष्य (स्त्राी/पुरूष) सत्य भक्ति शास्त्रा अनुसार गुरू से दीक्षा लेकर नहीं करता। वह मृत्यु के पश्चात् पशु जीवन प्राप्त करता है। वह गधे या बैल के शरीर प्राप्त करता है। मानव शरीर में स्वादिष्ट भोजन खाता था। गधा बनने के पश्चात् अच्छा खाना नहीं मिलता। गधे का शरीर धारण करके जंगल में कूड़े के ढ़ेर से गंदा भोजन व घास खाता है। इसलिए भक्ति करो।
कबीर, राम-नाम कड़वा लागै, मीठे लागें दाम। दुविधा में दोनों गए, माया मिली ना राम।।
भावार्थ:- सत्संग न सुनने वाले मानव (स्त्राी/पुरूष) को परमात्मा के विधान का ज्ञान नहीं होता। जिस कारण से उसको परमात्मा के विषय में चर्चा भी अच्छी नहीं लगती। धन संग्रह करना अच्छा लगता है। जिस कारण से उसको दोनों से हाथ धोने पड़ते हैं यानि उसे न तो परमात्मा मिलता है और मृत्यु के पश्चात् धन भी यहीं रह गया। उसके दोनों ही हाथ से निकल गए।
कबीर, संत शरण में आने से, आई टलै बला। जै भाग्य में सूली हो, कांटे में टल जाय।।
भावार्थ:- समर्थ कबीर परमेश्वर के कृपा पात्रा सच्चे गुरू (सतगुरू) से दीक्षा लेने वाले भक्त/भक्तमति की परमात्मा रक्षा करता है। यदि पूर्व जन्म के पाप के कारण साधक को मौत की सजा सूली यंत्रा के द्वारा मिलनी भाग्य में लिखी हो जो अत्यधिक पीड़ादायक होती है तो परमात्मा उस साधक के उस मृत्युदंड को समाप्त करके कुछ छोटा-मोटा दण्ड जैसे पैर में काँटा लगना देकर टाल देता है। भयंकर दण्ड को नाममात्रा के दण्ड में बदल देता है जो बहुत बड़ी बला यानि परेशानी थी।
कबीर, कुल करनी के कारणे, हंसा गया बिगोय। तब कुल क्या कर लेगा, जब चार पाओं का होय।।
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी सतर्क कर रहे हैं कि हे भक्त (स्त्राी/पुरूष)! जो कुल परिवार व संसार की शर्म के कारण भक्ति नहीं करते, कहते हैं कि घर-परिवार वाले व संसार के व्यक्ति मजाक करेंगे कि नाम दीक्षा लेकर दण्डवत् प्रणाम करते हो। अन्य देवी-देवताओं की पूजा नहीं करते हो। श्राद्ध-पिण्डदान नहीं करते हो। तुम्हें शर्म आनी चाहिए। उन्होंने अपना मानव जीवन नष्ट कर लिया। भक्ति न करने से जब चार पैर के पशु यानि गधे, कुत्ते, सूअर, बैल आदि बनोगे, तब ये कुल व संसार के व्यक्ति क्या बचाव करेंगे। भक्ति ने बचाव करना था, वह की नहीं। इसलिए भक्ति करो।
कबीर, चोरी जारी वैश्या वृति, कबहु ना करयो कोए। पुण्य पाई नर देही, ओच्छी ठौर न खोए।।
भावार्थ:- हे मानव! चोरी-जारी यानि परस्त्री गमन, वैश्यावृति यानि परपुरूषों से धन के लोभ में स्त्री का संभोग करना कोई भी ना करना। यह मानव शरीर (स्त्राी/पुरूष) बहुत पुण्यों से प्राप्त हुआ है। इससे पाप कार्यों को करके गलत स्थान पर जाकर नष्ट मत कर। शुभ कर्म कर, गुरू धारण करके अपना कल्याण करवाओ।
काया तेरी है नहीं, माया कहाँ से होय। गुरू चरणों में ध्यान रख, इन दोनों को खोय।।
भावार्थ:- जिस काया को रोगमुक्त कराने के लिए मानव अपनी संपत्ति को भी बेचकर उपचार कराता है। कहा है कि काया भी आपके साथ नहीं जाएगी, माया की तो बात ही क्या है। पूर्ण गुरू जी से दीक्षा लेकर दिन-रात्रि भक्ति कर। गुरू जी के बताए ज्ञान को आधार बनाकर जीवन की राह पर चल। काया तथा माया से मोह हटाकर भक्ति धन संग्रह कर।
कबीर, धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय। माली सींचे सौं घड़ा, समय आए फल होय।।
भावार्थ:- जैसे माली आम का बीज बोता है। उसकी सिंचाई करता है। कुछ दिन पश्चात् अंकुर दिखाई देता है। फिर भी समय-समय पर सिंचाई करता रहता है। रक्षा के लिए कांटेदार झांड़ियों की बाड़ (थ्मदबमे) करता है। एक आम के पौधे को पेड़ बनने में लगभग 8.10 वर्ष लग जाते हैं। तब तक माली (पौधा लगाने वाला बाग का मालिक या नौकर) उस पौधे की सिंचाई करता रहता है। जब आम का पेड़ बन जाता है तो आम के फल लगते हैं। इतने लगते हैं कि स्वयं का परिवार भी खाता है तथा बेचकर अपना निर्वाह भी करता है। इसी प्रकार भक्ति नाम रूपी बीज को बो कर यानि दीक्षा लेकर उसका स्मरण, दान रूपी सिंचाई करते रहना चाहिए। आम के पौधे की तरह धीरे-धीरे भक्ति रूपी पेड़ बनने के पश्चात् सुखों का अम्बार लग जाएगा। जैसे आम के पेड़ को टनों आम लगे, खाए और बेचकर धन कमाया। इसी प्रकार भक्त को धीरज रखना चाहिए। धीरे-धीरे भक्ति का परिणाम आने लगेगा।
कबीर, करनी तज कथनी कथैं, अज्ञानी दिन रात। कुकर (कुत्ते) ज्यों भौंकत फिरैं, सुनी सुनाई बात।।
भावार्थ:- जो व्यक्ति कहते हैं ज्ञान की बातें, औरों को शिक्षा देते हैं की किसी का बुरा मत करो, परंतु स्वयं गलती करते हैं। वे आध्यात्मिक गुरू उस कुत्ते के समान हैं जो व्यर्थ में भौंकता रहता है। उसी प्रकार ये धर्मगुरू एक-दूसरे से कथा सुनकर शिष्यों को सुनाते रहते हैं। स्वयं अमल नहीं करते।
कण्ठी माला सुमरणी, पहरे से क्या होय। ऊपर डूंडा साध का, अन्तर राखा खोय।।
भावार्थ:- इसलिए कण्ठी-माला-सुमरणी को गले में डालने से साधु नहीं बनता। आत्म-कल्याण के लिए पूर्ण संत से दीक्षा लेकर आजीवन मर्यादा में रहकर भक्ति करने से कल्याण होता है। आप पाठ करने के अधिकारी नहीं हो। अधिकारी बिना पाठ करना यजमान के साथ धोखा है। आपके पूर्वज ऋषिजन वास्तव में पंडित थे। विद्वान पुरूष थे। वे ऐसी गलती नहीं करते थे।
कबीर, जहाँ आशा तहाँ बासा होई। मन कर्म वचन सुमरियो सोई।।
भावार्थ:- गीता अध्याय 8 श्लोक 6 में भी यही प्रमाण है कि ‘‘हे भारत! परमात्मा का यह विधान है कि जो अन्त समय में जिसमें भाव यानि आस्था रखकर स्मरण करता है, वह उसी को प्राप्त होता है।’’ इसी विधानानुसार राजा परीक्षित का जीव स्थूल शरीर त्यागकर (जो सर्प विष से मर गया था) सूक्ष्म शरीर युक्त शुकदेव ऋषि के साथ विमान में बैठकर स्वर्ग में चला गया।
कबीर, बिन माँगे मोती मिलें, माँगे मिले न भीख। माँगन से मरना भला, यह सतगुरू की सीख।।
भावार्थ:- कबीर परमात्मा ने भी बताया है कि जो पूर्ण परमात्मा की सत्य साधना करता है, उसे माँगना नहीं चाहिए। माँगने से परमात्मा रूष्ट हो जाता है। उसको भिक्षा भी नहीं मिलती। वह साधक परमात्मा पर विश्वास रखकर नहीं माँगेगा तो परमात्मा उसकी इच्छा पूरी करेगा यानि मोती जैसी बहुमूल्य वस्तु भी दे देगा। पूर्ण सतगुरू यही शिक्षा देता है कि माँगने से तो व्यक्ति जीवित ही मर जाता है। माँगने से तो मरना भला है। भावार्थ आत्महत्या से नहीं है। यहाँ अपनी इच्छाओं का दमन करके मृतक बनकर रहने से है।
जगत में जीवन दिन-चार का, कोई सदा नहीं रहे। यह विचार पति संग चालि कोई कुछ कहै।।
भावार्थ:- बहुत पुराने समय में स्त्राी अपने मृत पति के साथ जलकर मर जाती थी। उस समय उसकी आस्था अपने पति के अतिरिक्त किसी धन-सम्पत्ति, बालकों या आभूषण में नहीं रहती थी। वह विचार करती थी कि संसार में आज नहीं तो कुछ दिन बाद मृत्यु होगी। संसार के व्यक्ति कुछ भी कहें, वह किसी की परवाह नहीं करती थी। इस तरह का विचार करके वह स्त्राी अपने पति के साथ जलकर मरती थी। यह कुरीति थी, परंतु उस समय बहुत महत्व माना जाता था। अब शिक्षित समाज ने इस कुरीति व जुल्म का अंत कर दिया है। भक्ति में दृढ़ता उत्पन्न करने के लिए यह उदाहरण सटीक है कि भक्त को भी ऐसी आस्था परमात्मा प्राप्ति के लिए बनानी चाहिए। संसार के व्यक्तियों की संसारिक बातों पर ध्यान न देकर अपने उद्देश्य की सफलता के लिए दृढ़ता से भक्ति करे। मर्यादा का पालन करे। नीचे की वाणियों में यही समझाया है कि भक्त सतपुरूष की प्राप्ति के लिए ऐसे ही लगन लगाए। संसार के नाते, संपत्ति को भूल जाए और केवल परमात्मा में ध्यान लगाए।
कबीर गुरू दयाल तो पुरूष दयाल। जेहि गुरू व्रत छुए नहीं काल।।
भावार्थ:- हे धर्मदास! यदि गुरू शिष्य के प्रति दयाल है यानि गुरू के दिल में शिष्य की अच्छी छवि है, मर्यादा में रहता है तो परमात्मा भी उस भक्त के ऊपर प्रसन्न है। अन्यथा उपरोक्त कष्ट शिष्य को भोगने पड़ेंगे।
कबीर, मानुष जन्म पाकर खोवै, सतगुरू विमुखा युग-युग रोवै। कबीर, गुरू विमुख जीव कतहु न बचै। अग्नि कुण्ड में जर-बर नाचै।।
कोटि जन्म विषधर को पावै। विष ज्वाला सही जन्म गमावै।। बिष्टा (टट्टी) मांही क्रमि जन्म धरई। कोटि जन्म नरक ही परही।।
भावार्थ:- गुरू को त्याग देने वाला जीव बिल्कुल नहीं बचेगा। नरक स्थान पर अग्नि के कुण्डों में जल-बल (उबल-उबल) कर कष्ट पाएगा। वहाँ अग्नि के कष्ट से नाचेगा यानि उछल-उछलकर अग्नि में गिरेगा। फिर करोड़ों जन्म विषधर (सर्प) की जूनी (शरीर) प्राप्त करेगा। सर्प के अपने अन्दर के विष की गर्मी बहुत परेशान करती है। गर्मी के मौसम में सर्प उस विष की उष्णता से बचने के लिए शीतलता प्राप्त करने के लिए चन्दन वृक्ष के ऊपर लिपटे रहते हैं। फिर वही गुरू विमुख यानि गुरू द्रोही बिष्टा (टट्टी-गुह) में कीड़े का जन्म प्राप्त करता है। इस प्रकार गुरू से दूर गया प्राणी महाकष्ट उठाता है। यदि गुरू नकली है तो उसको त्यागकर पूर्ण गुरू की शरण में चले जाने से कोई पाप नहीं लगता।
कबीर, कोयल सुत जैसे शूरा होई। यही विधि धाय मिलै मोहे कोई।। निज घर की सुरति करै जो हंसा। तारों तास के एकोतर बंशा।।
भावार्थ:- कबीर परमात्मा ने कहा कि हे धर्मदास! जिस प्रकार शूरवीर तथा कोयल के सुत (बच्चे) चलने के पश्चात् पीछे नहीं मुड़ते। इस प्रकार यदि कोई मेरी शरण में इस प्रकार धाय (दौड़कर) सब बाधाओं को तोड़कर परिवार मोह छोड़कर मिलता है तो उसकी एक सौ एक पीढ़ियों को पार कर दूँगा।
कबीर कोटिन कंटक घेरि ज्यों नित्य क्रिया निज कीन्ह। सुमिरन भजन एकांत में मन चंचल गह लीन।।
भावार्थ:- भक्त के ऊपर चाहे करोड़ों कष्ट पड़े, परंतु अपनी नित्य की क्रिया (तीनों समय की संध्या) अवश्य करनी चाहिए तथा चंचल मन को रोककर एकान्त में परमात्मा की दीक्षा वाले नाम का जाप करें।
सांझ सकार मध्या सन्ध्या तीनों काल। धर्म कर्म तत्पर सदा कीजै सुरति सम्भाल।।
भावार्थ:- भक्तजनों को चाहिए कि तीनों काल (समय) की संध्या करे। सांझ यानि शाम को सकार यानि सुबह तथा मध्याहन् यानि दोपहर (दिन के मध्य) में संध्या करते समय सुरति यानि ध्यान आरती में बोली गई वाणी में रहे और धर्म के कार्य में सदा तैयार रहे, आलस नहीं करे।
कबीर भक्तों अरू गुरू की सेवा कर श्रद्धा प्रेम सहित। परम प्रभु (सत्य पुरूष) ध्यावही करि अतिश्य मन प्रीत।।
भावार्थ:- अपने गुरूदेव तथा सत्संग में या घर पर आए भक्तों की सदा आदर के साथ सेवा करें। श्रद्धा तथा प्रेम से सेवा करनी चाहिए। परम प्रभु यानि परम अक्षर पुरूष की भक्ति अत्यधिक प्रेम से करें।
पुरूष यति (जति) सो जानिये, निज त्रिया तक विचार। माता बहन पुत्राी सकल और जग की नार।।
भावार्थ:- यति पुरूष उसको कहते हैं जो अपनी स्त्री के अतिरिक्त अन्य स्त्राी में पति-पत्नी वाला भाव न रखें। परस्त्री को आयु अनुसार माता, बहन या बेटी के भाव से जानें।।
स्त्रि सो जो पतिव्रत धर्म धरै, निज पति सेवत जोय। अन्य पुरूष सब जगत में पिता भ्रात सुत होय।।
अपने पति की आज्ञा में रहै, निज तन मन से लाग। पिया विपरीत न कछु करै, ता त्रिया को बड़ भाग।।
भावार्थ:- सती स्त्री उसको कहते हैं जो अपने पति से लगाव रखे। अपने पति के अतिरिक्त संसार के अन्य पुरूषों को आयु अनुसार पिता, भाई तथा पुत्रा के भाव से देखे यानि बरते। अपने पति की आज्ञा में रहे। मन-तन से सेवा करे, कोई कार्य पति के विपरीत न करे।
कबीर, मनोकामना बिहाय के हर्ष सहित करे दान। ताका तन मन निर्मल होय, होय पाप की हान।।
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने बताया है कि बिना किसी मनोकामना के जो दान किया जाता है, वह दान दोनों फल देता है। वर्तमान जीवन में कार्य की सिद्धि भी होगी तथा भविष्य के लिए पुण्य जमा होगा और जो मनोकामना पूर्ति के लिए किया जाता है। वह कार्य सिद्धि के पश्चात् समाप्त हो जाता है। बिना मनोकामना पूर्ति के लिए किया गया दान आत्मा को निर्मल करता है, पाप नाश करता है।
कबीर, यज्ञ दान बिन गुरू के, निश दिन माला फेर। निष्फल वह करनी सकल, सतगुरू भाखै टेर।।
भावार्थ:- पहले गुरू धारण करो, फिर गुरूदेव जी के निर्देश अनुसार दान करना चाहिए। बिना गुरू के कितना ही दान करो और कितना ही नाम-स्मरण की माला फेरो, सब व्यर्थ प्रयत्न है। यह सतगुरू पुकार-पुकारकर कहता है।
प्रथम गुरू से पूछिए, कीजै काज बहोर। सो सुखदायक होत है, मिटै जीव का खोर।।
भावार्थ:- प्रथम गुरू की आज्ञा लें, तब अपना नया कार्य करना चाहिए। वह कार्य सुखदायक होता है तथा मन की सब चिंता मिटा देता है।
कबीर, अभ्यागत आगम निरखि, आदर मान समेत। भोजन छाजन, बित यथा, सदा काल जो देत।।
भावार्थ:- आपके घर पर कोई अतिथि आ जाए तो आदर के साथ भोजन तथा बिछावना अपनी वित्तीय स्थिति के अनुसार सदा समय देना चाहिए।
सोई म्लेच्छ सम जानिये, गृही जो दान विहीन। यही कारण नित दान करे, जो नर चतुर प्रविन।।
भावार्थ:- जो ग्रहस्थी व्यक्ति दान नहीं करता, वह तो म्लेच्छ यानि दुष्ट व्यक्ति के समान है। इसलिए हे बुद्धिमान! नित (सदा) दान करो।
पात्र कुपात्र विचार के तब दीजै ताहि दान। देता लेता सुख लह अन्त होय नहीं हान।।
भावार्थ:- दान कुपात्रा को नहीं देना चाहिए। सुपात्रा को दान हर्षपूर्वक देना चाहिए। सुपात्रा गुरूदेव बताया है। फिर कोई भूखा है, उसको भोजन देना चाहिए। रोगी का उपचार अपने वित सामने धन देकर करना, बाढ़ पीड़ितों, भूकंप पीड़ितों को समूह बनाकर भोजन-कपड़े अपने हाथों देना सुपात्रा को दिया दान कहा है। इससे कोई हानि नहीं होती।
कबीर, फल कारण सेवा करै, निशदिन याचै राम। कह कबीर सेवा नहीं, जो चाहै चैगुने दाम।।
भावार्थ:- जो किसी कार्य की सिद्धि के लिए सेवा (पूजा) करता है, दिन-रात परमात्मा से माँगता रहता है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि वह सेवा सेवा नहीं जो चार गुणा धन सेवा के बदले इच्छा करता है।
कबीर, सज्जन सगे कुटम्ब हितु, जो कोई द्वारै आव। कबहु निरादर न कीजिए, राखै सब का भाव।।
भावार्थ:- भद्र पुरूषों, सगे यानि रिश्तेदारों, कुटम्ब यानि परिवारजनों तथा हितु यानि आपके हितैषियों का आपके द्वार पर आना हो तो कभी अनादर नहीं करना चाहिए। सबका भाव रखना चाहिए।
कबीर, कोड़ी-कोड़ी जोड़ी कर कीने लाख करोर। पैसा एक ना संग चलै, केते दाम बटोर।।
भावार्थ:- दान धर्म पर पैसा खर्च किया नहीं, लाखों-करोड़ों रूपये जमा कर लिए। संसार छोड़कर जाते समय एक पैसा भी साथ नहीं चलेगा चाहे कितना ही धन संग्रह कर लो।
जो धन हरिके हेत, धर्म राह नहीं लगात। सो धन चोर लबार गह, धर छाती पर लात।।
भावार्थ:- जो धन परमात्मा के निमित खर्च नहीं होता, कभी धर्म कर्म में नहीं लगता, उसके धन को डाकू, चोर, लुटेरे छाती ऊपर लात धरकर यानि डरा-धमकाकर छीन ले जाते हैं।
सत का सौदा जो करै, दम्भ छल छिद्र त्यागै। अपने भाग का धन लहै, परधन विष सम लागै।।
भावार्थ:- अपने जीवन में परमात्मा से डरकर सत्य के आधार से सर्व कर्म करने चाहिएं जो अपने भाग्य में धन लिखा है, उसी में संतोष करना चाहिए। परधन को विष के समान समझें।
भूखा जहि घर ते फिरै, ताको लागै पाप। भूखों भोजन जो देत है, कटैं कोटि संताप।।
भावार्थ:- जिस घर से कोई भूखा लौट जाता है, उसको पाप लगता है। भूखों को भोजन देने वालों के करोड़ों विघ्न टल जाते हैं।
प्रथम संत को जीमाइए। पीछे भोजन भोग। ऐसे पाप को टालिये, कटे नित्य का रोग।।
भावार्थ:- यदि आपके घर पर कोई संत (भक्त) आ जाए तो पहले उसको भोजन कराना चाहिए, पीछे आप भोजन खाना चाहिए। इस प्रकार अपने सिर पर नित्य आने वाले पाप के कारण कष्ट को टालना चाहिए।
कबीर, यद्यपि उत्तम कर्म करि, रहै रहित अभिमान। साधु देखी सिर नावते, करते आदर मान।।
भावार्थ:- अभिमान त्यागकर श्रेष्ठ कर्म करने चाहिऐं। संत, भक्त को आता देखकर शीश झुकाकर प्रणाम तथा सम्मान करना चाहिए।
कबीर, बार-बार निज श्रवणतें, सुने जो धर्म पुराण। कोमल चित उदार नित, हिंसा रहित बखान।।
भावार्थ:- भक्त को चाहिए कि वह बार-बार धर्म-कर्म के विषय में सत्संग ज्ञान सुने और अपना चित कोमल रखे। अहिंसा परम धर्म है। ऐसे अहिंसा संबंधी प्रवचन सुनने चाहिऐं।
कबीर, न्याय धर्मयुक्त कर्म सब करैं, न करना कबहू अन्याय। जो अन्यायी पुरूष हैं, बन्धे यमपुर जाऐं।।
भावार्थ:- सदा न्याययुक्त कर्म करने चाहिऐं। कभी भी अन्याय नहीं करना चाहिए। जो अन्याय करते हैं, वे यमराज के लोक में नरक में जाते हैं।
कबीर, गृह कारण में पाप बहु, नित लागै सुन लोय। ताहिते दान अवश्य है, दूर ताहिते होय।।
कबीर, चक्की चैंकै चूल्ह में, झाड़ू अरू जलपान। गृह आश्रमी को नित्य यह, पाप पाँचै विधि जान।।
भावार्थ:- गृहस्थी को चक्की से आटा पीसने में, खाना बनाने में चूल्हे में अग्नि जलाई जाती है। चैंका अर्थात् स्थान लीपने में तथा झाड़ू लगाने तथा खाने तथा पीने में पाँच प्रकार से पाप लगते हैं। हे संसारी लोगो! सुनो! इन कारणों से आपको नित पाप लगते हैं। इसलिए दान करना आवश्यक है। ये पाप दान करने से ही नाश होंगे।
कबीर, कछु कटें सत्संग ते, कछु नाम के जाप। कछु संत के दर्शते, कछु दान प्रताप।।
भावार्थ:- भक्त के पाप कई धार्मिक क्रियाओं से समाप्त होते हैं। कुछ सत्संग-वचन सुनने से ज्ञान यज्ञ के कारण, कुछ नाम के जाप से, कुछ संत के दर्शन करने से तथा कुछ दान के प्रभाव से समाप्त होते हैं। जैसे वस्त्रा पहनते हैं। मिट्टी-धूल लगने से मैले होते हैं। उनको पानी-साबुन से धोया जाता है। इसी प्रकार नित्य कार्य में पाप लगना स्वाभाविक है। इसी प्रकार वस्त्रा की तरह सत्संग वचन, नाम स्मरण, दान व संत दर्शन रूपी साबुन-पानी से नित्य धोने से आत्मा निर्मल रहती है। भक्ति में मन लगा रहता है।
कबीर, जो धन पाय न धर्म करत, नाहीं सद् व्यौहार। सो प्रभु के चोर हैं, फिरते मारो मार।।
भावार्थ:- जो धन परमात्मा ने मानव को दिया है, उसमें से जो दान नहीं करते और न अच्छा आचरण करते हैं, वे परमात्मा के चोर हैं जो माया जोड़ने की धुन में मारे-मारे फिरते हैं।
जिन हर की चोरी करी और गए राम गुण भूल। ते विधना बागुल किए, रहे ऊर्ध मुख झूल।।
भावार्थ:- यही प्रमाण गीता अध्याय 3 श्लोक 10 से 13 में कहा है कि जो धर्म-कर्म नहीं करते, जो परमात्मा द्वारा दिए धन से दान आदि धर्म कार्य नहीं करते, वे तो चोर हैं। वे तो अपना शरीर पोषण के लिए ही अन्न पकाते हैं। धर्म में नहीं लगाते, वे तो पाप ही खाते हैं।
कबीर, मात पिता सो शत्राु हैं, बाल पढ़ावैं नाहिं। हंसन में बगुला यथा, तथा अनपढ़ सो पंडित माहीं।।
भावार्थ:- जो माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ाते नहीं, वे अपने बच्चों के शत्राु हैं। अशिक्षित व्यक्ति शिक्षित व्यक्तियों में ऐसा होता है जैसे हंस पक्षियों में बगुला। यहाँ पढ़ाने का तात्पर्य धार्मिक ज्ञान कराने से है, सत्संग आदि सुनने से है। यदि किसी व्यक्ति को आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है तो वह शुभ-अशुभ कर्मों को नहीं जान पाता। जिस कारण से वह पाप करता रहता है। जो सत्संग सुनते हैं। उनको सम्पूर्ण कर्मों का तथा अध्यात्म का ज्ञान हो जाता है। वह कभी पाप नहीं करता। वह हंस पक्षी जैसा है जो सरोवर से केवल मोती खाता है, जीव-जंतु, मछली आदि-आदि नहीं खाता। इसके विपरीत अध्यात्म ज्ञानहीन व्यक्ति बुगले पक्षी जैसे स्वभाव का होता है। बुगला पक्षी मछली, कीड़े-मकोड़े आदि-आदि जल के जंतु खाता है। शरीर से दोनों (हंस पक्षी तथा बुगला पक्षी) एक जैसे आकार तथा सफेद रंग के होते हैं। उनको देखकर नहीं पहचाना जा सकता। उनके कर्मों से पता चलता है। इसी प्रकार तत्त्वज्ञान युक्त व्यक्ति शुभ कर्मों से तथा तत्त्वज्ञानहीन व्यक्ति अशुभ कर्मों से पहचाना जाता है।
कबीर, पहले अपने धर्म को, भली भांति सिखलाय। अन्य धर्म की सीख सुनि, भटकि बाल बुद्धि जाय।।
भावार्थ:- बच्चों को या परिवार के अन्य सदस्यों को पहले अपने धर्म का ज्ञान पूर्ण रूप से कराना चाहिए। जिनको अपने धर्म यानि धार्मिक क्रियाओं का ज्ञान नहीं, वह बालक जैसी बुद्धि का होता है। वे अन्य धर्म पंथ की शिक्षा सुनकर भटक जाते हैं। जिनको अपने धर्म (पंथ) का सम्पूर्ण ज्ञान है, वह भ्रमित नहीं होता।
कबीर, जो कछु धन का लाभ हो, शुद्ध कमाई कीन। ता धन के दशवें अंश को, अपने गुरू को दीन।।
दसवां अंश गुरू को दीजै। अपना जन्म सफल कर लीजै।।
भावार्थ:- शुद्ध नेक कमाई से जो लाभ होता है, उसका दसवां भाग अपने गुरूदेव को दान करना चाहिए।
कबीर, जे गुरू निकट निवास करै, तो सेवा कर नित्य। जो कछु दूर बसै, पल-पल ध्यान से हित।।
भावार्थ:- यदि गुरू जी का स्थान आपके निवास के निकट हो तो प्रतिदिन सेवा के लिए जाइये। यदि दूर है तो उनकी याद पल-पल करनी चाहिए। इससे साधक का हित होता है यानि लाभ प्राप्त होता है।
कबीर, केते जनकादिक गृही जो निज धर्म प्रवीन। पायो शुभगति आप ही औरनहू मति दीन।।
भावार्थ:- राजा जनक जैसे गृहस्थी अपने धर्म के विद्वान थे यानि मानव कर्म के ज्ञानी थे। जिस कारण से स्वयं भी शुभगति प्राप्त की यानि स्वर्ग प्राप्त किया तथा औरों को भी स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग बताया।
कबीर, हरि के हेत न देत, धन देत कुमार्ग माहीं। ऐसे अन्यायी अधम, बांधे यमपुर जाहीं।।
भावार्थ:- जो व्यक्ति धर्म नहीं करते और पैसे का गलत प्रयोग करते हैं, शराब पीते हैं, माँस खाते हैं, तम्बाकू सेवन करते हैं या व्यर्थ के दिखावे में खर्च करते हैं, ऐसे अन्यायी नीच यमलोक यानि नरकलोक में बाँधकर ले जाए जाते हैं।
निजधन के भागी जेते सगे बन्धु परिवार। जैसा जाको भाग है दीजै धर्म सम्भार।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि संपत्ति के जो भी जितने भी भाग के कानूनी अधिकारी हैं, उनको पूरा-पूरा भाग देना चाहिए अपने धर्म-कर्म को ध्यान में रखकर यानि भक्त को चाहिए कि जिसका जितना हिस्सा बनता है, परमात्मा से डरकर पूरा-पूरा बाँट दे।
कबीर, खाट पड़ै तब झखई नयनन आवै नीर। यतन तब कछु बनै नहीं, तनु व्याप मृत्यु पीर।।
भावार्थ:- वृद्ध होकर या रोगी होकर जब मानव चारपाई पर पड़ा होता है और आँखों में आँसू बह रहे होते हैं, उस समय कोई बचाव नहीं हो सकता, मृत्यु के समय होने वाली पीड़ा हो रही होती है। कहते हैं कि जो भक्ति नहीं करते, उनका अन्त समय महाकष्टदायक होता है। उसके प्राण सरलता से नहीं निकलते, उसको इतनी पीड़ा होती है जैसे एक लाख बिच्छुओं ने डंक लगा दिया हो। उस समय यम के दूत उसका गला बंद कर देते हैं। व्यक्ति न बोल सकता है, न पूरा श्वांस ले पाता है। केवल आँखों से आँसू निकल रहे होते हैं। इसलिए भक्ति तथा शुभ कर्म जो ऊपर बताए हैं, मानव को अवश्य करने चाहिऐं।
कबीर, देखे जब यम दूतन को, इत उत जीव लुकाय। महा भयंकर भेष लखी, भयभीत हो जाय।।
भावार्थ:- यम के दूतों का भयंकर रूप होता है। मृत्यु के समय यमदूत उसी धर्म व भक्तिहीन व्यक्ति को ही दिखाई देते हैं। उनको देखकर भय के मारे वह प्राणी शरीर में ही इधर-उधर छुपने की कोशिश करता है।
कबीर, भक्ति दान किया नहीं, अब रह कास की ओट। मार पीट प्राण निकालहीं, जम तोड़ेंगे होठ।।
भावार्थ:- न गुरू किया, न भक्ति और न दान-धर्म किया, अब किसकी ओट में बचेगा? यम के दूत मारपीट करके प्राण निकालेंगे और बिना विचारे चोट मारेंगे यानि बेरहम होकर पीट-पीटकर तेरे होठ फोड़ेंगे। होठ फोड़ना बेरहमी से पीटना अर्थात् निर्दयता से मारेंगे।
कबीर, मान अपमान सम कर जानै, तजै जगत की आश। चाह रहित संस्य रहित, हर्ष शोक नहीं तास।।
भावार्थ:- भक्त को चाहे कोई अपमानित करे, उस और ध्यान न दे। उसकी बुद्धि पर रहम करे और जो सम्मान करता है, उस पर भी ध्यान न दे यानि किसी के सम्मानवश होकर अपना धर्म खराब न करे। हानि-लाभ को परमात्मा की देन मानकर संतोष करे।
कबीर, मार्ग चलै अधो गति, चार हाथ मांही देख। पर तरिया पर धन ना चाहै समझ धर्म के लेख।।
भावार्थ:- भक्त मार्ग पर चलते समय नीचे देखकर चले। भक्त की दृष्टि चलते समय चार हाथ यानि 6 फुट दूर सामने रहनी चाहिए। धर्म-कर्म के ज्ञान का विचार करके परस्त्राी तथा परधन को देखकर दोष दृष्टि न करे।
कबीर, पात्रा कुपात्र विचार कर, भिक्षा दान जो लेत। नीच अकर्मी सूम का, दान महा दुःख देत।।
भावार्थ:- संत यानि गुरू को अपने शिष्य के अतिरिक्त दान-भिक्षा नहीं लेनी चाहिए। कुकर्मी तथा अधर्मी का धन बहुत दुःखी करता है।
कबीर, इन्द्री तत्त्व प्रकृति से, आत्म जान पार। जाप एक पल नहीं छूटै, टूट न पावै तार।।
भावार्थ:- आत्मा को पाँचों तत्त्वों से भिन्न जानै। शरीर आत्मा नहीं है। निरंतर सतनाम का जाप करे।
कबीर, जब जप करि के थक गए, हरि यश गावे संत। कै जिन धर्म पुराण पढ़े, ऐसो धर्म सिद्धांत।।
भावार्थ:- यदि भक्त जाप करते-करते थक जाए तो परमात्मा की महिमा की वाणी पढ़े, यदि याद है तो गाए या अपने धर्म की पुस्तकों को पढ़े, यह धार्मिक सिद्धांत है।
कबीर, क्षमा समान न तप, सुख नहीं संतोष समान। तृष्णा समान नहीं ब्याधी कोई, धर्म न दया समान।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि क्षमा करना बहुत बड़ा तप है। इसके समान तप नहीं है। संतोष के तुल्य कोई सुख नहीं है। किसी वस्तु की प्राप्ति की इच्छा के समान कोई आपदा नहीं है और दया के समान धर्म नहीं है।
कबीर, योग (भक्ति) के अंग पाँच हैं, संयम मनन एकान्त। विषय त्याग नाम रटन, होये मोक्ष निश्चिन्त।।
भावार्थ:- भक्ति के चार आवश्यक पहलु हैं। संयम यानि प्रत्येक कार्य में संयम बरतना चाहिए। धन संग्रह करने में, बोलने में, खाने-पीने में, विषय भोगों में संयम रखे यानि भक्त को कम बोलना चाहिए, विषय विकारों का त्याग करना चाहिए। परमात्मा का भजन तथा परमात्मा की वाणी प्रवचनों का मनन करना अनिवार्य है। ऐसे साधना तथा मर्यादा पालन करने से मोक्ष निश्चित प्राप्त होता है।
कबीर, जान बूझ साच्ची तजैं, करै झूठ से नेह। ताकि संगत हे प्रभु, स्वपन में भी ना देय।।
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि जो व्यक्ति प्रमाण आँखों देखकर भी झूठ को ही आधार मानता है, उस व्यक्ति से तो परमात्मा! स्वपन में भी ना मिलाना। वह इतना दुष्ट है। उससे ज्ञान चर्चा करना व्यर्थ है।
कबीर, राज तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह। मान बड़ाई ईष्र्या, दुर्लभ तजना येह।।
भावार्थ:- अध्यात्म ज्ञान के अभाव के कारण मानव को कुछ असाध्य बुराई घेर लेती हैं जैसे मान-बड़ाई, ईष्र्या। मान-बड़ाई का अर्थ है पद या धन के अहंकार के कारण सम्मानित व्यक्ति। ये दोनों (सम्मान के कारण बड़प्पन यानि मान-बड़ाई तथा ईष्र्या) ऐसी बुराई हैं, इनके अभिमान में अँधा होकर इन्हें नहीं छोड़ता। राज त्याग सकता है, स्त्राी को त्याग सकता है, परंतु इन दोनों को त्यागना कठिन है।
कहा कबीर है नाम हमारा। तत्त्वज्ञान देने आए संसारा।।
सत्यपुरूष है कुल का दाता। हम वाका सब भेद बताता।।
सत्यलोक से हम चलि आए। जीव छुड़ावन जग में प्रकटाए।।
भावार्थ:- कबीर साहेब जी ने कहा कि मैंने गरूड़ को बताया कि मेरा नाम कबीर है। सम्पूर्ण विश्व को तत्वज्ञान यानि यथार्थ अध्यात्म ज्ञान प्रदान करने आया हूँ। मैं सत्यलोक यानि सनातन परम धाम से चलकर आया हूँ। काल जाल से जीवों को छुड़वाने के लिए जग में प्रकट हुआ हूँ। सत्य पुरूष कुल का मालिक है। सबका पोषण करने वाला है। सबका दाता है। मैं उसका सम्पूर्ण भेद बता दूँ।
कबीर, एकै साधै सब सधै, सब साधै सब जाय। माली सींचै मूल कूँ, फूलै फलै अघाय।।
भावार्थ:- एक मूल मालिक की पूजा करने से सर्व देवताओं की पूजा हो जाती है जो शास्त्रानुकूल है। जो तीनों देवताओं में से एक या दो (श्री विष्णु सतगुण तथा श्री शंकर तमगुण) की पूजा करते हैं या तीनों की पूजा ईष्ट रूप में करते हंै तो वह गीता अध्याय 13 श्लोक 10 में वर्णित अव्यभिचारिणी भक्ति न होने से व्यर्थ है।
बनजारे के बैल ज्यों, फिरा देश-विदेश। खाण्ड छोड़ भुष खात है, बिन सतगुरू उपदेश।।
भावार्थ:- पहले के समय में बैलों के ऊपर गधे की तरह थैला (बोरा) रखकर उसमें खाण्ड भरकर बनजारे अर्थात् व्यापारी लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाते-ले जाते थे। बैल की पीठ पर बोरे में खाण्ड है, स्वयं भुष खाया करता। इसी प्रकार गुरू द्वारा तत्वज्ञान न मिलने के कारण ऋषिजन वेदों रूपी खाण्ड (चीनी) को तो कण्ठस्थ करके रखते थे। उनको ठीक से न समझकर साधना वेद विरूद्ध करते थे।
अनन्त कोटि अवतार हैं, माया के गोविन्द। कर्ता हो हो अवतरे, बहुर पड़े जग फंध।।
भावार्थ:- सतपुरुष कबीर साहिब जी की भक्ति से ही जीव मुक्त हो सकता है। जब तक जीव सतलोक में वापिस नहीं चला जाएगा तब तक काल लोक में इसी तरह कर्म करेगा और की हुई नाम व दान धर्म की कमाई स्वर्ग रूपी होटलों में समाप्त करके वापिस कर्म आधार से चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीर में कष्ट उठाने वाले काल लोक में चक्कर काटता रहेगा। माया (दुर्गा) से उत्पन्न हो कर करोड़ों गोबिन्द(ब्रह्मा-विष्णु-शिव) मर चुके हैं। भगवान का अवतार बन कर आये थे। फिर कर्म बन्धन में बन्ध कर कर्मों को भोग कर चैरासी लाख योनियों में चले गए। जैसे भगवान विष्णु जी को देवर्षि नारद का शाप लगा। वे श्री रामचन्द्र रूप में अयोध्या में आए। फिर श्री राम जी रूप में बाली का वध किया था। उस कर्म का दण्ड भोगने के लिए श्री कृष्ण जी का जन्म हुआ। फिर बाली वाली आत्मा शिकारी बना तथा अपना प्रतिशोध लिया। श्री कृष्ण जी के पैर में विषाक्त तीर मार कर वध किया।
कबीर, जीवना तो थोड़ा ही भला, जै सत सुमरन होय। लाख वर्ष का जीवना, लेखै धरै ना कोय।।
भावार्थ:- कबीर साहिब अपनी (पूर्णब्रह्म की) जानकारी स्वयं बताते हैं कि इन परमात्माओं से ऊपर असंख्य भुजा का परमात्मा सतपुरुष है जो सत्यलोक (सच्च खण्ड, सतधाम) में रहता है तथा उसके अन्तर्गत सर्वलोक ख्ब्रह्म (काल) के 21 ब्रह्माण्ड व ब्रह्मा, विष्णु, शिव शक्ति के लोक तथा परब्रह्म के सात संख ब्रह्माण्ड व अन्य सर्व ब्रह्माण्ड, आते हैं और वहाँ पर सत्यनाम-सारनाम के जाप द्वारा जाया जाएगा जो पूरे गुरु से प्राप्त होता है। सच्चखण्ड (सतलोक) में जो आत्मा चली जाती है उसका पुनर्जन्म नहीं होता।